क्यों बर्बाद हुआ गाडरवारा का दाल उद्योग.?

 संपा




                                            

किसी भी क्षेत्र के विकास में वहाँ स्थापित उद्योगों की महत्वूपर्ण भूमिका होती है।ये उद्योग न केवल स्थानीय लोगों को रोजगार देते है,न केवल क्षेत्र को पहचान देते हैं वरन वे सरकार को टैक्स देकर उनके वित्तीय ढांचे को भी मजबूत बनाते हैं । जिला मूलतः कृषि प्रधान जिला है।इस जिले में बहुसंख्यक कृषक और कृषि से जुड़े मजदूर हें,कृषि और कृषि उत्पाद ही उनके जीविकोपार्जन का स्त्रोत है।इस क्षेत्र की काली माटी दलहनी फसलों के उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है।इसके कारण ही क्षेत्र में दलहनी फसलों के उत्पादन कह प्रक्रिया को बढ़ावा मिला है।जिले में मुख्यतः चना, अरहर,मसूर,बटरी जैसी दलहनी फसलों का उत्पादन किसानों द्वारा किया जाता रहा है।दलहनी फसलों के बेहतर उत्पादन के कारण ही यहाँ दाल उद्योग को बढ़ावा मिला।जैसे-जैसे दलहनी फसलों की पैदावर बढ़ी,वैसे ही वैसे दाल उद्योग की संख्या भी बढ़ती चली गई।एक समय था जब इस क्षेत्र में कपास की खेती बहुतायत में होती थी,इतनी कि किसान अन्य दूसरी फसलें लेता ही नहीं था।संभवतः इसके कारण ही तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने वर्ष 1902 में कपास की खेती पर पूर्णतया प्रतिबंध लगा दिया।यह वह समय था जब किसानों के पास सिंचाई के साधन नहीं होते थे।वे पूर्णतः बरसात की सिंचाई पर निर्भर थे।इन परिस्थितियों में अरहर ही ऐसी फसल थी जो लगभग बरसात के मौसम में लगाई जाती थी और बरसात की सिंचाई की मदद से उत्पादित हो जाती थी।इसके कारण ही क्षेत्र में अरहर का उत्पादन बढ़ने लगा।अरहर का उत्पादन बढ़ा तो इसकी खपत की समस्या आ खड़ी हुई।अरहर का सीधे उपयोग नहीं किया जा सकता,इसकी दाल बनानी होती है।किसान अपने घरों में हाथ चक्की की मदद से दाल का उत्पादन करते और बेच देते,पर यह श्रमसाध्य काम था और समय भी बहुत लगता था।आमतौर पर घरों में जो हाथ चक्की होती है वह छोटी होती है,दिनभर मेहनत करने के बाद भी दो-तीन किलो से अधिक दाल नहीं बनाई जा सकती थी।इस समस्या के निराकरण की पहल हुई और दाल मिल की स्थापना का क्रम प्रारंभ हुआ।वर्ष 1920 में गाडरवारा में पहली दाल मिल स्थापित की गई।हाथ से संचालित होने वाली इस दालमिल में घरों की चक्की की तरह बड़े आकार के पत्थर लगे होते थे,जिन्हें मजदूर अपनी शक्ति से ऊपर उठाकर अरहर पर झटके के साथ पटकते,जिसके चलते अरहर दो भागों में बंट जाती।इसे सूपों की मदद से साफ किया जाता ताकि इसके छिलके और भूसा अलग-अलग हो जाऐं।इस दाल को तेल और हल्दी मिलाकर सुखाया जाता फिर यह विक्रय के लिए उपलब्ध हो जाती।इस एक दाल मिल लग जाने से किसानों को अरहर के विक्रय के लिए बाजार मिल गया ।

                      किसी भी उद्योग का विकास धीरे-धीरे ही होता है।गाडरवारा के इस दाल उद्योग का विकास भी धीरे-धीरे ही हुआ।बिजली थी नहीं पर मानव श्रम उपलब्ध था।मानव श्रम यांत्रिक शक्ति से अधिक गति से काम नहीं कर सकता था। इसमें एक और परेशानी थी कि अरहर के कई दाने टूटते ही नहीं थे और कुछ बिलकुल बारीक पिस जाते थे।इस समस्या का हल चक्की के स्थान पर ढेंकी के प्रयोग से किया गया।समय परिवर्तन के साथ-साथ दालों के निर्माण की विधियों में भी परिवर्तन होता चला गया।हाथ चक्की और ढेंकी के बाद वर्ष 1936 के आसपास डीजल इंजन से चलने वाली चक्की का प्रयोग होने लगा।गरीदास-धन्नालाल नामक फर्म ने 1938 में अपना उत्पादन प्रारंभ कर दिया।हालांकि डीजल के उपयोग करने से दाल निर्माण की प्रक्रिया की लागत बढ़ने लगी।संभवतः इसके कारण ही डीजल इंजिन के परिवर्तन से दाल उद्योग को कोई अधिक बढ़ावा नहीं मिला।भारत की स्वतंत्रता के बाद जब बिजली का उत्पादन बढ़ा और गाडरवारा जैसे क्षेत्र में सीमति बिजली की उपलब्धता होने लगी तब वर्ष 1952 से बिजली से चलने वाले यंत्रों का प्रयोग दाल उद्योग में प्रारंभ हुआ । बिजली संयत्रों के कारण गाडरवारा के दाल उद्योग ने गति पकड़ ली।वर्ष 1948 तक गाडरवारा मे जहाँ केवल पाँच दाल उद्योग थे,वे वर्ष 1958 में बढ़कर 13 हो गए।समय के साथ दाल उद्योग का आधुनिकरण होता चला गया,वे आटोमैटिक मशीनरी से सज्जित होते चले गए।वर्ष 1979 में गाडरवारा में दाल उद्योगों की संख्या बढ़कर 31 पहुँच गई और 90 के दशक में इस उद्योग ने सौ का आंकड़ा पार कर लिया।दाल उद्योग बढ़े तो अरहर की फसलों का उत्पादन भी बढ़ा।किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य भी मिलने लगा।नर्मदा के कछार और गाडरवारा की शक्कर नदी की मिठास के कारण यहाँ की दाल का स्वाद अलग ही महससू किया गया,जिसके कारण यहाँ की दाल की मांग बढ़ने लगी।इसके कारण इन दाल मिलों से उत्पादित होने वाली दाल देश के विभिन्न क्षेत्रों में जाने लगी।क्षेत्रवासियों के लिए गौरव की बात यह थी कि यहाँ की दाल देश के किसी भी हिस्से में उपलब्ध हो उसे पहचाना ‘‘गाडरवारा की दाल’’ के नाम से ही जाता था।यही कारण है कि यहाँ के दाल उद्योग ने गाडरवारा को नई पहचान दी और गाडरवारा को ‘‘दालों की राजधानी’’ का संबोधन भी मिला ।

                   अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँचकर गाडरवारा का दाल उद्योग सिमटने लगा।कारण साफ है कि शासन दाल उद्योग को अपेक्षित सहयोग नहीं दे पाया।उत्पादित दालों को अन्य प्रांतों में भेजने के लिए उद्योग मालिकों को रेलवे बैगन समय पर उपलब्ध नहीं हो पाती थीं।इसके अभाव में उन्हें माल को ट्रकों से भेजना पड़ता था जो महँगा भी होता था और रिस्की भी।कई बार दाल से भरे ट्रक ही गायब हो जाते थे अथवा वे एक्सरडेन्ट के शिकार हो जाते थे,जिसका नुसान व्यापारियों को उछाना पड़ता था।दाल के भंडारण की सीमा तय की गई थी,यह सीमा भी उद्योग मालिकों के लिण् परेशानी का कारण बन गई थी। निश्चित भंडारण से अधिक माल वे नहीं बना पाते थे जिसके कारण उन्हें नुकसान उठाना पड़ता था।90 के दशक में बिजली संकट बहुत अधिक था।समय पर और पर्याप्त बिजली नहीं मिल रही थी,चूंकि दालउद्योग पूरी तह बिजली पर निर्भर हो गया था,ऐसे में बिजली न मिलने से मिलों में काम बद हो जाता था और सारे मजूदर बेकार रहे आते थे,जिसका नुकसान उद्योग मालिकों को भोगना पड़ता था।मंडी में दलहनी फसलों के भावों में निरंतर उतार-चढ़ाव होता रहता था।इसके कारण भी कई बार दाल उत्पादन मुनाफे की बजाए नुकसान में तब्दील हो जाता था।सिंचाई के साधन बढ़ने से किसानों के पास अन्य फसलें लेने का विकल्प खुल चुका था।किसान दलनी फसलों का उचित दाम न मिलने पर अन्य फसल उत्पादित करने लगे जिसके कारण दलहनी फसलों की आवक कम होने लगी।मिल मालिकों को अपनी मिल चलाने के लिए दलहनी फसलों को अन्यत्र से बुलाना पड़ता था,यह भी महंगा पड़ता था ।

करों की भरमार- दाल उद्योग के सिमटने का एक कारण करों का भारी-भरकम बोझ भी है।केन्द्रीय विक्रयकर,राज्यस्तरीय विक्रय कर,अन्र्तपा्रतीय विक्रय कर,प्रवेश कर,टर्न ओवर,वृत्तिकर,मंडीकर,आयकर,सम्मति कर के अलावा नगरपालिका और राजस्व विभाग द्वारा आरोपित करों की लम्बी फेहरिस्त है,जिसके कारण मिल मालिक परेशान होते रहे हें।इसके अतिरक्ति विभिन्न वस्तुओं के लिए विभिन्न प्रकार के लायसेंस लेना,उनका मासिक प्रतिवेदन देना जैसी समस्यायों भी उन्हें उठानी पड़ रही थीं ।


बढ़ाना होगा किसानों का हौसला- 

क्षेत्र में अब सिंचाई के साधन पर्याप्त हो चुके हैं।कभी केवल बरसात पर निर्भर रह कर कार्य करने वाला किसान आज तीन फसलें ले रहा है।फसल लेने का उसके पास कोई निर्धारित मापदंड नहीं है,वह उस फसल का उत्पादन करता है जिससे उसकी आय बेहतर मिले।दाल उद्योग के सिमटने से दलहनी फसलों की मांग प्रभावित हई है।यदि दाल उद्योगों को निरंतरा मिलेगी तो उसके कारण दलहनी फसलों की मांग भी बढ़ेगी।किसान दलहनी फसलें उत्पादित करेंगें और बढ़ती मांग के कारण उन्हें उनकी फसलों को अच्छा दाम भी मिलेगा।किसान की आय कैसे दुगनी हो,इस विषय पर माननीय प्रधानमंत्री मोदी से लेकर केन्द्रीय कैबिनेट भी प्रयासरत है।इस क्षेत्र में उन्हें सफलता मिल सकती है यदि वे दाल उद्योग को बढ़ावा देने का प्रयास किया जाता है तो।क्षेत्र की भूमि उर्वर है और इसमें दलहनी फसलों के उत्पादन की बहुत अधिक क्षमता है।कृषि से जुड़े विशेषज्ञ बताते हैं कि इस क्षेत्र की मिट्टी एकदम काली और भुरभुरी है जो बेहतर उत्पादन देने में सक्षम है।क्षेत्र की मिट्टी में अभी मृदा प्रदूषण कम है,पर यदि किसान लगातार गन्ना की फसल लेते रहे तो मृदा प्रदूषण बढ़ सकता है जबकि दलहनी फसलों के उत्पादन में मृदा प्रदूषण कम होता है।प्रशासनिक स्तर पर इस दिशा में प्रयास किया जावे तो किसानों को दलहनी फसल लेने के लिए जागरूक किया जा सकता है।दाल उद्योग क्षेत्र के किसानों की किस्मत को बदल सकता है साथ ही ‘‘दालों की राजधानी’ के अपने खिताब को बनाए रख सकता है ।

फिलहाल तो विभिन्न परेशानियों के चलते गाडरवारा का दाल उद्योग सिमटता चला गया है।इसे पुनः पुनर्जीवित करने की पहल की जानी आवश्यक है ।

नरसिंहपुर जिले की गाडरवारा तहसील में यूं तो कोई रेखांकित करने वाला उद्योग कभी स्थापित नहीं हो पाया।यहाँ दाल उद्योग ही ऐसा उद्योग था जो रोजगार भी देता था और क्षेत्र का नाम भी कर रहा था।इस उद्योग के कमजोर होने के कारण अब दाल मिलों की संख्या सिमट गई है ।

दाल उद्योग को अभी भी पुनर्जीवित किया जा सकता है।शासन और प्रशासन यदि मिल मालिकों को नियमानुसार सुविधाएं उपलब्ध करा दे और प्रशासनिक कार्यां में मुहलते देने लगे,किसानों को उनकी फसलों का उचित दाम मिलने लगे तो भी उद्योग को जीवन मिल सकता है ।


 लेखक -कुशलेन्द्र श्रीवास्तव (वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार) फोटो shrivasatavji 

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