यह औरतें आखिर इतना रोती क्यों हैं..
इस संसार में जो भी आता है उसे हर भाव से गुजरना ही पड़ेगा यही नियम है ,यही सत्य है और यही अंतिम रास्ता भी है खुद को बनाये रखने का..
सबके अपने साधन है उबरने के, एक वर्ग उंगलियों में सिगरेट फंसा कर छल्लों में गुबार उड़ा सकता है , उनके हाथों में गिलास भी हो सकता है ...या फिर उनके कदम जब चाहे उद्विग्नता के क्षणों में चुपचाप नदी के किनारे अंधेरे में बैठ सकते हैं ... और तो और कई बार चीख चिल्ला कर निर्जीव वस्तुओं को सहमा भी सकता है...
सबकी अपनी सीमाएं ,सबके अपने दु:ख....
लेकिन देहरी लांघकर अपने मन को शांत करने के उपाय सभी के पास नहीं होते..
किचन के बर्तनों की आवाज़ में अपनी आवाज़ दबा देने वाली इन प्राणियों के पास रोने के अलावा क्या चारा है ? दिया गया आधा चाँद भी उनके पास ना हो तो अंधेरा भरपूर मिलता ही है ..
नकली उजालों कि इस दुनिया में मशाल जलाने के लिए तीली नहीं है.. तो क्या किया जा सकता है ...
अगली सुबह फर्श धोने के साथ साथ मन की दीवारों के धुएं का कालापन भी बहा आती है। यही काफी है...
शांत मन की आवश्यकता आखिर सभी को होती है , तो क्यों ना उनके रोने का मज़ाक ना उड़ा कर एकबारगी उन्हें समझा जाए जाए ...
क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उन्हें भी जीने , सांस लेने ,गुबार हिचकियों में निकाल लेने का समय दिया जाए...
रोना धोना उनका शौक नहीं है जीने का सहारा है..... लाठी टेकने की इजाज़त सभी को मिलनी चाहिए...
आधा दु,:ख और पूरा चाँद.....
ऋचा
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