मिजाज - ए - ज़िंदगी





 

-----------------------------

 

जद्दोजहद में ज़िंदगी की
वक़्त का पाबंद होने पर 

खुद इंसान


बेख़बर रहता है

वक़्त पाबंद नहीं किसी का

हर शख़्स रहता है 

मसरूफ

सुनाने में अपनी

दास्तां - ए - ज़िंदगी

वक़्त नहीं किसी के पास

सुनने का 

वक़्त के साथ किसी दूसरे की 

दर्द भरी दास्तां

एतबार कर बैठता है इंसान

वफ़ा - ए - ज़िंदगी पर
नहीं समझ पाया है कभी कोई

मिजाज - ए - ज़िंदगी

मुड़कर नहीं देखती है

बेवफ़ा ज़िंदगी

नहीं मिलते है चंद लम्हे 

सुकूँ के

सोने के लिए चैन की नींद से

ज़िंदगी में चैन मिलता है

सौंपकर खुद को 

नींद के आगोश में 

हमेशा के लिए

पूरा कर अपना 

सफ़र - ए - ज़िंदगी

नहीं समझ पाया है कभी कोई

मिजाज - ए - ज़िंदगी ...................

 

-- सुधीर केवलिया--





 

 



 

0/Post a Comment/Comments