काम आईं जो मन्नत मनाई हुई,
इस तरह गोद माँ की भराई हुई।
फूलने यूं लगा वृक्ष उन्माद में,
कोपलें देखकर खिलखिलाई हुई।
बाग में जो खिला एक ही फूल था,
कट गई डाल तन से जुदाई हुई।
चार दिन के लिए वो खिलौना बनी,
आ गया वह समय फिर विदाई हुई।
पाट दी ईश ने कुछ दिनों के लिए,
टूट पुलिया गई फिर से खाई हुई।
भर कलेजा रहा हैं यही सोच कर,
एक कन्या मिली वह पराई हुई।
'रवि' प्रकृति का नियम ये अनोखा लगा,
फिर यूही आँख में धुन्ध छाई हुई।
- रबीन्द्र कुमार पचौरी 'रवि',
शिवपुरी, यमुनापार (मथुरा) ।
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