-संतोष कुमार भार्गव
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में वकीलों और दिल्ली पुलिस के बीच पिछले दिनों जो कुछ हुआ, उसने दोनों पक्षों की छवि को ठेस पहुंचाई। दिल्ली में वकीलों का गुस्सा शांत होने का नाम नहीं ले रहा है। दो नवंबर को दिल्ली के तीस हजारी कोर्ट में कार पार्किंग को लेकर पुलिस और वकीलों के बीच हिंसक झड़प हो गई थी। मामले ने तूल पकड़ा और कानून के रखवाले एक दूसरे के दुश्मन बन गए। दोनों के बीच का झगड़ा सड़क पर आ गया। दिल्ली की सड़कों पर वकीलों ने खूब तांडव किया। वहीं पूरा पुलिस महकमा अपनी मांगों को लेकर पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर ही धरने पर बैठ गया।
दोनों को कानून के रखवाले और सूत्रधार माना जाता रहा है। बल्कि वे पूरक की भूमिका में रहे हैं। दोनों ने मर्यादा की लक्ष्मण-रेखा लांघी है। आज समीकरण ऐसे हैं मानो दोनों कट्टर दुश्मन हों! इसी के नतीजतन स्वतंत्र भारत के 72 साल में पहली बार पुलिस कर्मियों को अपने ही मुख्यालय के सामने करीब 11 घंटे तक धरना-प्रदर्शन करना पड़ा। उनके कुछ सवाल थे और मांगें भी थीं। आंदोलनों और अराजकता से उबारने वाली पुलिस खुद ही आंदोलित रही। अनुशासित बल के तौर पर ख्यात दिल्ली पुलिस ही आक्रोश में नहीं थी, बल्कि उनके परिजन भी सड़क पर उतरे। उन्हें इंसाफ चाहिए था। उनके साथियों का निलंबन वापस लिया जाना चाहिए था। बेशक विरोध-प्रदर्शन तो समाप्त हो गया और पुलिसवाले अपनी ड्यूटी पर लौट गए और घर वाले भी चले गए, लेकिन अब भी कई सवाल अनसुलझे हैं।
बड़ा और अहम सवाल यह है कि आखिर ऐसी परिस्थितियां क्यों बनीं? पुलिस आयुक्त समेत आठ उसी स्तर के अफसरों ने नाराज पुलिसकर्मियों को समझाने-मनाने की लगातार कोशिश की, लेकिन प्रदर्शनकारी अड़े रहे। यदि इसी तरह पुलिसवाले अपने कमांडिंग अफसर का आदेश या अनुरोध नहीं मानेंगे, तो इससे भी अराजकता फैल सकती है। यह भी एक गंभीर सवाल है, लेकिन परिस्थितियां और संदर्भ भिन्न थे। बहरहाल बीती दो नवंबर को एक अदालती परिसर में वकीलों और पुलिसकर्मियों के बीच टकराव और मारा पीटी पहली बार नहीं हुई। इलाहाबाद, लखनऊ, चेन्नई और चंडीगढ़ आदि के अदालती परिसरों में इस ठोकतंत्र को कई बार देखा जा चुका है। दिल्ली पुलिस और वकीलों के बीच इससे पहले 17 फरवरी, 1988 को जोरदार झड़प हुई थी। तब तीस हजारी कोर्ट में वकीलों और पुलिस वालों के बीच जमकर बबाल हुआ था। उस समय पुलिस उपायुक्त किरण बेदी थीं। उन्होंने पुलिस वालों को वकीलों पर लाठीचार्ज का आदेश दिया था। उस वक्त पुलिस की तरफ से कोई गोली नहीं चलाई गई थी।
जो दृश्य टीवी चैनलों पर देखे गए, उनमें वकील पुलिसवालों को जमकर पीट रहे थे। एक पुलिसकर्मी मार खाकर जमीन पर भी गिर पड़ा था। मामला सिर्फ वाहन की पार्किग का था। उसी के मद्देनजर एक वकील पुलिस की गोली का भी शिकार हुआ। वह अब भी अस्पताल में बताया जाता है। इतने से बवाल ने जानलेवा रूप धारण कर लिया। किसी भी पक्ष का दोष हो, लेकिन ये दृश्य 'गुंडागर्दी' के हैं। यह असहिष्णुता है और असामाजिक व्यवहार भी!
दिल्ली के हजारों वकील हड़ताल पर चले गए, जबकि सर्वोच्च और उच्च न्यायालयों के फैसले हैं कि ऐसी हड़ताल 'अवैध' है। अदालतों ने इन पर पाबंदी भी थोप रखी है, लेकिन वकील का अहंकार है कि वह खुद संविधान का व्याख्याता है। वकील तो जजों के खिलाफ हिंसक व्यवहार पर उतरते रहे हैं। बहरहाल वकीलों ने हड़ताल की, तो सवाल उठा कि यदि कानून-व्यवस्था की बुनियादी ईकाई-पुलिस ने भी हड़ताल शुरू कर दी, तो राष्ट्रीय राजधानी के हालात क्या होंगे? सिर्फ 11 घंटों में ही दिल्ली बिखर कर रह गई। हर तरफ जाम ठहर गए। नेशनल हाइवे को दोनों ओर से अवरुद्ध किया गया। उस अराजकता में 'अलर्ट' घोषित दिल्ली में कोई आतंकी हमला हो गया होता, तो क्या होता?
यदि पुलिस बल ही मुख्यालय का घेराव कर नारेबाजी करेगा, तो देश में क्या संदेश जाएगा। दो-तीन किलोमीटर की दूरी पर राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के दफ्तर और आवास मौजूद हैं। बेशक पुलिस और वकीलों के ये किरदार अनपेक्षित हैं। सवाल है कि ऐसे मामलों में जो न्यायिक तत्परता वकीलों के पक्ष में सामने आती है, वह पुलिस, डाक्टर और दुकानदार या अदालत के छोटे कर्मचारी अथवा आम आदमी के पक्ष में दिखाई क्यों नहीं देती?
न्यायिक तत्परता तो सभी को इंसाफ देने के लिए है। वकील-पुलिस झड़प के बाद पुलिसकर्मियों को निलंबित और स्थानांतरित करने के आदेश उच्च न्यायालय ने दे दिए, लेकिन वकीलों पर कोई त्वरित कार्रवाई क्यों नहीं की गई? बहरहाल जिस न्यायिक जांच के आदेश दिए गए थे, हम उसके निष्कर्षों की प्रतीक्षा करेंगे, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय और केंद्र सरकार भी आंख मूंद कर नहीं बैठ सकते। पुलिस जैसे सशस्त्र बल का सड़क पर आना अप्रत्याशित है, पुलिस यूनियन की मांग पर अड़े रहना भी भविष्य का संकेत है, सुरक्षा-व्यवस्था भी संदेहास्पद हो सकती है, लिहाजा ऐसे तमाम सवालों को संबोधित किया जाना चाहिए। माना इस प्रकरण में उसकी किसी सीमा तक गलती भी रही होगी, मगर उसका प्रतिकार यह घटनाक्रम तो नहीं हो सकता। इसके बाद वकीलों का कामकाज ठप्प करना और पुलिसकर्मियों द्वारा पुलिस मुख्यालय के बाहर धरना-प्रदर्शन करके अनुशासित संगठन की साख को आंच पहुंचाना भी तार्किक नहीं कहा जा सकता है।
लेकिन वकील अभी भी अपनी मांगों पर अड़े हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट को छोड़कर दिल्ली की सभी निचली अदालतों में काम ठप है और प्रदर्शन जारी है। बार काउंसिल ऑफ इंडिया के चेयरमैन पुलिस वालों पर अपना गुस्सा निकाल रहे हैं लेकिन दोषी वकीलों के खिलाफ एक्शन की बात भी कह रहे हैं।
वकील और पुलिस की लड़ाई में आम जनता पिस रही है। पिछले दो दिन में दिल्ली की अदालतों में करीब 40 हजार मुकदमों की सुनवाई नहीं हो पाई। इनकी चिंता किसी को नहीं है।
बार काउंसिल की टिप्पणी के बावजूद वकीलांें का प्रदर्शन यूपी और राजस्थान पहुंच गया है। वकीलों द्वारा पुलिस पर लगाए गए सारे आरोपों को अगर सही भी मान लिया जाए तब भी वकीलों द्वारा कानून को हाथ में लेने को किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता है।कानून के जानकार वकीलों को तो अपने कानूनी ज्ञान के माध्यम से गलत व्यवहार करने वाले पुलिस कर्मियों को ऐसा कानूनी सबक सिखाना चाहिए था कि आगे अन्य कोई ऐसी हिम्मत नहीं करता। लेकिन वकीलों ने तो कानून हाथ में लेकर दिखा दिया कि पुलिस, प्रशासन, कानून और न्याय व्यवस्था पर उनको भरोसा नहीं है। वहीं पुलिसकर्मियों का धरना प्रदर्शन भी कानून की दृष्टि से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। पुलिस हो या वकील हर पेशे में कुछ ऐसे लोग होते हैं जो अपनी हरकतों से पूरी बिरादरी को शर्मसार कर देते हैं।
जाहिर है इस घटनाक्रम की प्रतिक्रिया में पुलिसकर्मी भी आंदोलन पर उतारू हुए। ऐसे कम ही देखा गया है कि पुलिसकर्मी अपनी शिकायत दर्ज कराने सड़क पर उतरे हों। कानून-व्यवस्था व अनुशासन के नजरिये से यह घटनाक्रम अप्रिय ही है। जाहिर तौर पर आक्रोश इतना अधिक था कि उन्होंने अपने उच्च अधिकारियों तक की अनसुनी कर दी। बेहतर होता कि पुलिसकर्मी अपनी शिकायत दर्ज कराकर आंदोलन का रास्ता अपनाए बिना काम पर लौट जाते। कानून व्यवस्था के रखवालों का अनुशासन तोड़कर यूं सड़क पर उतरना देश की छवि के नजरिये से अच्छा नहीं कहा जा सकता। किसी भी पक्ष को ऐसे मामलों में अतिरंजित व्यवहार से परहेज करना चाहिए। उनकी समाज में बड़ी जिम्मेदारी है। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि जहां उन्हें कुछ विशेष अधिकार मिले हैं तो उसी हिसाब से उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। किसी भी पक्ष को अपनी बात कानून के दायरे में रखकर ही करनी चाहिए। यदि ऐसा होता है तो टकराव की नौबत ही नहीं आ सकती।
-मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार।
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